कविताएँ >क्या ही फ़र्क पड़ता है

क्या ही फर्क पड़ता है

मैं हर रात उन रास्तों से गुजरता हूँ

लैम्पपोस्ट की उस दुधिया रौशनी से

मेढ़को के टर्र-टर्र और झींगुरो के बुनते तान में

खुद अकेला रहकर सबको साथ देखता हूँ

कभी कोई हमे भी मिल जाया करता है

कुछ दूर साथ चलता है

फिर, क्या ही फ़र्क़ पड़ता है।

कितने ही लोग, कितने ही कहानियाँ चलती मिलती हैं

दो पल रुकना, हाथ हिला हल्का सा मुस्कुराना

कदम ठहरते हैं, नज़रें उनपर मेरी भी उठती हैं

कई हाथों में हाथ दिए चल रहे होते हैं

मुकाम की परवाह नही, मुस्कान पे मर रहे होते हैं

देख अच्छा लगता है उनका यूँ हँसना-इठलाना

कभी कंधे पर हाथ रखना, अचानक गले लग जाना

वक़्त की पाबंदियाँ हैं तो क्या, सब चलता हैं

कल फिर मिल लेंगे

आज बिछड़ने से क्या ही फ़र्क़ पड़ता हैं।

थोडा आगे यारो का कोई कारवां छेड़ता-चिल्लाता मिल जाता है

जिनके शोर से मोहब्बत का वो उबलता नशा उतर जाता है

फिर उन मेढ़को, झींगुरो की आवाज़ें सुनाई नहीं देती

जाने सन्नाटा किधर छुप जाता है

शरारत भरी नज़रे मिलाना, फिर ज़ोर से ठहाके मारना

अपनी ही धुन, अपने ही तराने में

ये कारवां बढ़ता चला जाता है

फिर अगल-बगल कौन है

इससे क्या ही फ़र्क़ पड़ता है।

आगे कुछ दूर थोडा अकेला हो जाता हूँ

जब उन रास्तों पर किसी को नज़र नहीं आता हूँ

कोई शोर, कोई छेड़खानी लबों की सुनाई नहीं देती

जाने क्यों ज़िन्दगी बढ़ती दिखाई नहीं देती

जाने वो कौन-सा बोझ, कौन-सी उम्मीदें

मेरे क़दमों को रोक देतीं है

ये नज़रें इधर-उधर भटक ज़ाने किसे ढूंढती हैं

मैं दो पल रुक पता नहीं क्या सोचता हूँ

एक गहरी साँस ले किसी तरह चल दिया करता हूँ

अंदर ही अंदर उठते सैलाब में मैं संभल नहीं पाता

मैं गुजर जाता हलके से

चीखता भी तो किसी को क्या ही फ़र्क़ पड़ता।

मैं हर रात उन रास्तों से गुजरता हूँ

कभी खुद को, तो कभी औरों को देखा करता हूँ

किसी मोड़ पर मिल जाऊँ तो अगले मोड़ बिछड़ना ही है

ऐसे में हमे मिलो या ना मिलो

क्या ही फ़र्क़ पड़ता है।