कविताएँ > सुनसान सड़कों की भीड़
सुनसान सड़कों की भीड़
वो तपिश भरी दोपहरी
फिर अचानक तूफ़ान का आना
तलवों में मोटे छालें
भूल गये थे पीना-खाना
कंठ ऐसे सूखे थें
बच्चें कैसे कहते भूखे थें
औरों को बस ताक रहे थें
इधर-उधर बस झाँक रहे थें
एक गमछी माथे पर पड़ी थी
पकड़ें ऐसे मानो जिम्मेवारी मिली हुई थी
देख रहा था सबकुछ वो
फिर भी वह मौन था
जब जाओगे दुबारा वोट माँगने
तब बतलायेगा वह कौन था
ऐसा नहीं है कि पूरी दुनिया ही झूठी थी
फिर भी मानो धरती इंसानियत की भूखी थी
तभी तो अपने लालो को ख़ुद में समा लिया
रह गयी जो रोटियां कुत्तों को खिला दिया
मरते तो वैसे भी थे ये तादाद हजारों में
वो तो अब वक़्त बहुत है दर्द देखने का अखबारों में
सड़कों पर तो भीड़ उनकी बढ़ गयी
हम बंद हुए जो गलियारों में
ये वह कमजोर, चढ़ कंधो पर जिनके
खोये रहते चाँद सितारों में
यें वही हैं जिनका मुद्दा बना चुनाव लड़ा जाता है
जिन संग खींच तस्वीरें तू समाजसेवी कहलाता है
यें वही हैं जो उन गटरों में उतरा करते हैं
जिनमे फेंक कर कचड़े, तू कूद निकल जाता है
ये वहीँ है जो तोड़ हर पत्थर रास्तें बनातें हैं
तेर पापों की कमाई, कंधे पर उठातें हैं
खड़ी करके इमारतें चुपचाप झुग्गियों में सो जातें हैं
अपना घर छोड़ चले आतें हैं शहर आबाद करने को
कुछ रोटियाँ कमाने को, कुछ बच्चों को आज़ाद करने को
अब मशीनें बंद हुई तो चले है फिर से गाँव अपने
राह इतनी दुर्लभ फिर भी बिना देखे पाँव अपने
कल फिर लौट कर आयेंगे लेकिन शिकायत नहीं दोहराएंगे
फिर दोबारा चुनावों में नज़र आयेंगे
सड़के तक रौशन कर ख़ुद अँधेरे में गुज़र जायेंगे।