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बालकनी

शिवली हाट बाजार, गोलिया ज़िले के मुख्य बाजारों में शामिल था। वहाँ आस-पास के कई गावँ से लोग जीविकोपार्जन करने के लिये तरह-तरह की छोटी बड़ी दुकानें लगाया करते थे। उन दुकानों में फल, सब्जियाँ, मसाले, और तरह-तरह के हस्तशिल्प, घरेलु राशन के सामान इत्यादि बिकते थें। बाजार के बीचों-बीच गुजरती एक सड़क उसे दो हिस्सों में बाँट देती थी। सड़क के दोनों ओर दुकानदार अपने सामान को बड़े करीने से सजाए बैठे रहते थे। सड़क के एक ओर एक दो-मंजिला मकान थी, जिसकी बालकनी सड़क की ओर खुलती थी। इस बालकनी की रेलिंग से टिककर समर रोज़ की तरह उस बाज़ार में अपनी नज़रे दौड़ा रहा है। उसकी नज़र पहले मिठाई दुकान की तरफ़ जाती है, जहां गुलाब जामुन, रसगुल्ले और जलेबी की मिठास हवा में घुल रही है। हलवाई अपने हुनर का प्रदर्शन करते हुए गरमागरम जलेबियाँ बना रहा है, और बच्चों की लंबी कतार दुकान के सामने लगी हुई है। वहां से थोड़ी आगे एक फेरीवाला रंग-बिरंगे खिलौनों के साथ खड़ा है। उसके पास लकड़ी के बने खिलौने, पतंगें, और रबर की गेंदें हैं। बच्चे उसके चारों ओर घेरा बनाए हुए हैं और खिलौनों को छू-छूकर देख रहे हैं।

समर इन दिनों कॉलेज से छुट्टी लेकर घर पर ही रुका हुआ था। ज्यादातर पढ़ाई-लिखाई दूसरे शहरों में हुई थी, तो मोहल्ले के लड़को से मिलना जुलना नहीं हो पाया था। इसीलिए अधिकतर समय, अपने बालकनी से लोगों को देखकर व्यतीत करता था। उसे अपनी खुद की दुनिया में जीने की आदत थी। हर समय नए ख्याल बुनते रहना और यहां तक कि वक्त काटने के लिए उसने बालकनी में खुद का एक राज्य स्थापित कर लिया था। बालकनी में लगे पेड़-पौधे उसके राज्य की संपत्ति, उसमें खिलने वाले फूल राज्य कोष में शामिल हो जाते थे। उसकी कुर्सी उसकी राजगद्दी और खुद वहां का राजा। उसके बालकनी के एक कोने से निकलने वाली चीटियों की पंक्ति उसके सेना की टुकड़ी थी, जिसे दिन में दो बार मिठे के टुकड़ों से नवाजा करता था।

एक शाम, वह अपने पड़ोसी राज्य, यानी की नीचे लगे बाजार में आते-जाते लोगों को देख रहा था। जैसे किसी मूर्तिकार के हाथ से उसकी बनाई मूर्ति का कोई अंश अछूता नहीं रह जाता, ठीक वैसे ही समर की नज़रे भी प्रतिदिन बाज़ार के हर कोने को टटोला करती। वह कभी सब्जी वालों को मोल-भाव करते सुनता, तो कभी शिल्पियों के कारीगरी के किस्से सुनता, फिर कहीं उसकी नज़र बच्चों की टोली के साथ दौड़ते हुए समोशे और गोलगप्पों के ठेले के पास जाकर रूकती। समर की नज़रों में वो सब उसकी प्रजा थे, जिनपे वो हर दिन मन ही मन में विजय हासिल किया करता। पर आज बाज़ार के उस शोर-शराबे में कही से शंखनाद की हल्की ध्वनि सुनाई पड़ती थी। मानो समर के पड़ोसी राज्य ने जंग का एलान कर दिया हो। समर की नज़र इस अप्रत्याशित द्वंद को भांप ना सकी और आज गोलगप्पे के ठेले पर अपना हथियार डालने को मजबूर हो गयी। एक साँवली सी मोहतरमा, आँखों पर काजल, कपाल पर छोटी सी टिकली, लम्बी चोटी, अपने लाल होठों से गोलगप्पे को दबाए और उसके तीखेपन को उंगलियाँ झाड़ कर भागाती हुई, गोलगप्पे वाले की रफ्तार में रफ्तार मिलने की कोशिश कर रही थी। उसे पता ही नहीं था कि उसने अनजाने में किसके राज्य में जोरदार दस्तक दे दी है। समर की नजर ऐसे धराशाही हुई, मानो होठों से फिसल कर गिरा गोलगप्पे का पानी हो।

समर उसके हुस्न का इतना कायल हो चूका था कि मन ही मन उसे अपनी रानी मान बैठा था। अब वो हर रोज़ अपनी बालकनी में बैठा उसका इंतजार करता। कभी इंतज़ार खत्म होती या फिर रात दूभर कटती। समय के साथ उसके मन में उस लड़की से मिलने की लालसा तीव्र होती गई। उसने समझा कि हर रोज़ ऐसे बस देखने से बात नहीं बढ़ने वाली, अगर सच में उसे अपनी रानी बनाना चाहता है तो थोड़ी हिम्मत बढ़ानी होगी और उससे बात करने की कोशिश करनी होगी। उस रात समर ने निश्चय किया की अगले दिन वो बालकनी से नहीं, बल्कि गोलगप्पे वाले के पास उसका इंतज़ार करेगा और उससे बात करने की कोशिश करेगा। रात भर वो इसी अभ्यास में लगा रहा कि कैसे अगले दिन वो उससे बातें शुरू करेगा, कहीं वो उसे देख कर डर गयी तो, कहीं उसने बात करने से मना करदिया तो, वगैरह-वगैरह। समर का मन उस छोटे बच्चे के तरह उत्सुक था, जिसे अगली रोज़ मेले में घुमने जाना हो। अगले दिन वह पूरी तरह से तैयार होकर, बालकनी से उस लड़की की राह देखने लगा। और जैसे ही वो आते हुए दिखी, समर दौड़ता हुआ घर से निकाला और छुपता-छुपाता गोलगप्पे के ठेले पर जा पहुँचा। उसका मन भय और रोमांच के मिश्रित भावों से उमड़ रहा था, कि कब वो वहां आएगी और कैसे समर बातें शुरू करेगा। समर की गर्दन उसकी रानी के कदमों संग ताल से ताल मिला मुड़ती गई। जैसे-जैसे वो ठेले के समीप आती गयी, समर की धड़कने बढती चली गई। उस दिन वो वहां नहीं रुकी। ठेले पर बिना रुके, उसको सामने से गुजरता देख, समर का दिल बैठ गया। समर हताशा की गहराईयों में हर बढ़ते कदम के साथ गिरता चला गया। उसकी रतजगी आँखों में उसकी रानी के प्रति तृष्णा की लहरें उमड़ने लगी। वो आगे बढ़ते हुए बड़ी नाजुकता से अपना सर घुमाती हैं और उसे देख मंद सी मुस्कान बिखेर जाती है। समर व्यथा की गहराइयों से निकल कर सातवें आसमान पर पहुँच जाता है।

अगले कुछ दिनों तक उन दोनों की आँखों-आँखों में बातें होने लगी। कभी बालकनी से, कभी घर के दरवाजे, तो कभी गोलगप्पे के ठेले पर। एक दिन समर ने ठाना कि वह उससे बात करेगा। उस शाम उसे रास्ते से आते देख, समर उसके पीछे हो लिया। कुछ दूर जब बाजार से हल्का आगे निकलकर, रास्तों पर भीड़ कम हुई, वो झट से रफ़्तार बढ़ा उसके आगे चला गया और पूछा

“आपका नाम क्या है?”

वो लड़की पहले तो थोड़ा चौकी पर उसके चेहरे के भाव तुरंत ही चंचलता में बदल गये। वो बोली,

“अरे! यह क्या तरीका है भला? ऐसे बीच सड़क लड़की को रोक कर उसका नाम पूछते हो। अभी शोर मचाऊँगी न, तो कुचल दिए जाओगे”

समर भी कुछ कम ना था, इतने दिनों के नैन-मटक्के से उसका साहस काफ़ी बढ़ गया था। खुराफ़ाती आवाज में बोला,

“कुचल तो उस दिन आपके होठों में दबे गोलगप्पे के साथ ही दिए गए थे”।

वो शर्मा गयी, बढ़ते हुए धीरे से बोली, “शोमल” और चलती गयी। समर भी बोला “और मैं समर”

अगले दिन से समर बालकनी में दो कुर्सियां लगने लगा, एक खुद के लिए और एक उसकी रानी के लिए। ऊपर से सैनिकों की पगार भी बढ़ा दी। अब दिन में दो बार नहीं, बल्कि तीन बार मीठे के टुकड़े देने लगा। कुछ नए फूलों के पौधे भी खरीद लाया। कई दिनों तक यूँहीं चलते-चलते बातें हुआ करती थी। एक दिन तो पीछे-पीछे समर उसके घर तक चला गया, पता जानने को। रास्ते भर शोमल उसको वापस जाने के इशारे करती रही, लेकिन वह भी ठहरा जिद्धि। समर काफ़ी खुश रहने लगा। नए-नए प्यार में जैसे युवाओं का दिल अपनी प्रेमिका के लिए कुछ भी कर-गुजरने को करता है, उसके हर ख़ुशी का ख़याल रखना, उसके जीवन का नायक बनना। समर के मन में भी इन्ही चीजों की उत्पत्ति हो चुकी थी। अचानक किसी दिन से शोमल उस रास्ते से आना बंद कर दि। समर बहुत परेशान रहने लगा। बिना उसे देख दिन-रात गुजारना मुश्किल हो रहा था। जब उसकी बेसब्री का बाँध टूटा तो वह चल पड़ा शोमल के घर की ओर। परेशानी और चिंता उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। तेजी से कदम बढ़ाते हुए वह उसके घर जा पहुँचा। लेकिन अब इसके आगे क्या करना है, इस बारे में उसने कुछ नहीं सोचा था। वो सीधा अंदर भी नहीं जा सकता था और ना ही किसी तरह शोमल को बाहर बुला सकता था। वह बार-बार उसके घर के दरवाजे के बीच के छिद्र से झाँकता ताकि शोमल पर नजर पड़ सके, पर निराशा ही हाथ लगती। वह बेचैन हो शोमल के घर के सामने के सड़क पर चहल-कदमी करता रहा कि अचानक एक मधुर सा गीत उसके बेचैन दिल को आराम दे पहुँचा। जब उसे वहाँ कोई आता-जाता नहीं दिखा, तो वो उसके घर के दूसरी तरफ़ की एक दीवार पर हल्के से चढ़ा और अंदर में बिना ग्रिल की एक खिड़की में उसे शोमल दिखाई पड़ी। वो गा रही थी,

“एही ठैयां झुलनी हेरानी हो रामा, कासों मैं पूछूँ?

सास से पूछूँ, ननदिया से पूछूँ, देवरा से पूछत लजानी हो रामा”

समर के हृदय को मानो ठंडक मिल गई हो। मानो किसी हिरण को मिराज के छल से मुक्ति मिल गई हो। वह उसके साँवले से चेहरे में, उसके लबों से निकल रहे उस मधुर गीत के बोलों में, उसके दर्द में खो गया। समर दीवार से उतरा और उसी की टेक ले खड़ा होकर गीत सुनता रहा। कुछ देर बाद जब गीत-गाना खत्म हुआ, तो समर अपने घर की ओर हो चला।

रास्ते भर वह शोमल के बारे में सोचता रहा, उसके सामने से उसकी रानी का चेहरा एक-एक करके गुजरने लगा। उसे उस मुस्कान के पीछे के घाव नजर आने लगे थे। वह समझ गया था कि वह गीत मदद की एक गुहार थी जो वह हर रोज मांगती है। और शायद इसलिए कि समर उसके दर्द का भागीदार न बने, उसने मिलना बंद कर दिया है। वह धुन पूरे रास्ते उसके दिमाग में घूमता रहा। घर पहुँच कर समर ने फैसला किया कि आज रात शोमल को उस पड़ोसी राज्य की कैद से छुड़ा लायेगा। उसे अपनी बालकनी में लगे सिंहासन पर बिठाएगा और वो सारे आदर-सम्मान देगा, जिसकी वह हकदार है। रात के साढ़े बारह बजे थे। पूरे मोहल्ले में सन्नाटा पसरा हुआ था। भले ही वो बाज़ार का इलाका था, फिर भी शाम के नौ बजे से ऊपर सिर्फ कुत्तों की ही आवाजें सुनाई पडती थी। सभी व्यापारी आठ बजे से पहले ही अपनी-अपनी दुकानें समेटना शुरू कर देते थे। समर अपनी रानी को लेने जा रहा था, सो उसे जंग की आशंका थी। इसीलिए वो घर के रसोई से एक धारदार चाकू लेकर अपनी पिछली जेब में रखा और दबे पांव घर से निकल गया। तेजी से कदम बढ़ाते हुए वह शोमल के घर तक जा पहुँचा और उसी दीवार से कूद कर, बिना ग्रिल के खिड़की से घुसा और सीधा शोमल के कमरे में जा धमका। कमरे में चाँद की हल्की सी रोशनी आती थी जो शोमल के चेहरे को लालायित कर रही थी। समर उसके बिस्तर के करीब गया और जाकर पहले तो कुछ देर शोमल को निहारता रहा, फिर हल्के से उसके गाल पर अपना हाथ फेरने लगा। शोमल की आंखें खुली और सामने किसी को बैठा देख उसकी चींख निकलने ही वाली थी कि समर ने उसका मूँह अपने हाथों से दबा दिया।

“चिल्लाओ नहीं, मैं तुम्हें ले जाने आया हूँ। साथ चलो, मेरे लोग तुम्हारी राह देख रहें हैं”

शोमल ने उसका हाथ झटक दिया और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, जिससे उसके घरवाले जाग गये। समर बार-बार शोमल को समझाने की कोशिश करता रहा, पर वह चिल्लाए ही जा रही थी। समर दबी हुई आवाज में बोला,

“शोमल, मैं समर हूँ। डरो नहीं, चलो मेरे साथ”

इतना बोलकर उसने फिर से उसका हाथ पकड़ लिया। शोमल दोबारा उसका हाथ झटकी और बोली,

“कौन समर? कौन हो तुम? मैं नहीं जानती तुम्हें।“

समर को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। जिसे वह अब तक अपनी रानी बनाने के सपने देखता रहा, जिसके लिए आज वो इस जंग में उतर आया था, वह उसे पहचानने से इनकार कर रही थी। समर गुस्से से लाल हो गया। उसी समय दूसरे कमरे से लड़की के पिता भागते हुए आते है।

“सुमन! क्या हुआ? कौन हो तुम?”

समर ने आव देखा न ताव, अपनी जेब से छूरा निकाला और घुसा दिया उसके पेट में।

चीख़ और चीत्कार से आस-पड़ोस के सभी लोगों की नींद खुल गयी। उधर सायरन मारती गाड़ियां बाज़ार के रास्ते होते हुए गुजरती है। समर के पिता आँखें मलते हुए बालकनी में आते हैं, और वहाँ रखी दो कुर्सियों से टकरा जाते हैं। उनकी नज़र बालकनी के जमीन पर पड़ी हुई दवाइयों पर पड़ती है, जिसके इर्द-गिर्द चीटियाँ मंडरा रही थी। वह दौड़ते हुए समर के कमरे में जाते हैं और बिस्तर खाली पा कर हड़बड़ी में अपना फोन खोजते हैं, और किसी का नंबर डायल करते हैं।

“डॉक्टर साहब! समर फिर से कहीं चला गया हैं।”

दूसरी ओर से आवाज आती हैं,

“क्या! इतनी रात को। वह अपनी दवाईयाँ नहीं ले रहा था क्या?”